Sunday, September 18, 2016

मेरी चाहत है तू ऊँची उड़ान भरे

ऐ निरीह पंछी मेरी चाहत है सुन तू ऊँची उड़ान भरे
भय न कर कोमल पंखो का इन्हें हिला मजबूत बना
इससे पहले बाज़ झपट ले सर्प निगल ले
तू कोशिश कर कुछ तो उड़ कि पंख परवाज़ भरें
इतना भय मन में क्यों तेरे मन में क्यों संताप भरे

ये सोच की अगर उड़ न पाया तो निश्चित सब व्यर्थ हो जायेगा
किसी पिंजरे में फिर कैद तू होगा या कही तू रौंदा जायेगा
मुझको तेरी खैर बहुत है मैं वन का बूढ़ा बरगद हूँ
मुझको कितना चैन मिलेगा जब तू नील गगन में छाएगा

मुड़ के न देख बीती राहों में आँधी तूफान जो थे
बिखरे घौसले के तिनको से मोह त्याग अब आगे देख
कुछ आंखे तुझ पे भी लगी है अपनों की घनघोर व्यथाएँ मन में लिए
सोच अगर तू उड़ न पाया उनको कैसे आज़ाद कराएगा

तेरा मन तेरी ताकत है तेरे आंसू तेरी ऊर्जा है
जाया मत कर दम को भरकर तू उड़ने के कोशिश कर
मैं बूढ़ा बरगद साथ तेरे हर वक़्त राह मैं ताकूँगा
जब ख़ुशी से तू उड़ कर फिर कुछ थक कर सुस्ताने मेरी छाव में आएगा

मेरी चाहत है तू ऊँची उड़ान भरे ... हाँ मेरी चाहत हैं ...

Thursday, October 24, 2013

भारतीय सामाजिक उत्थान ----------------------------------------
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आज कल देश में एक बहस चल रही है की यहाँ धर्म के नाम पर की सब कुछ होता है वो चाहे राजनेतिक हो सामाजिक हो या आर्थिक हो।सभी पार्टिया अपने अपने सामाजिक समर्थन या ये कहे की सामाजिक राजनेतिक गुलामी के माध्यम से अपने को सिद्ध करने का भरपूर जोर लगा रही है
परन्तु मेरा विचार है की ये पार्टी विशेष की बात नहीं है सामाजिक ताना बाना इसी तरह से विकसित है। जिनको दोयम दर्जे का माना जाता है या ये कहे की ये तथाकथित उच्च समाज या निम्न समाज में एक तरह से स्वयं स्वीकार्य भावना है। इसके पीछे भी तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक कारण ही उत्तरदाई रहे होंगे। ।धर्म बेफेजूल बदनाम रहा। आज आर्थिक और सामाजिक दोनों ही अपना रूप स्वतः की अपना रूप बदल रहे है और ये अब चाहे न चाहे सबको मंजूर हो रहे है क्योकि येही सच्चाई है आज कोई भी धार्मिक ,राजनेतिक आर्थिक कार्य किसी एक पर निर्भर नहीं है ,नियम तत्कालीन समर्थवान के द्वारा ही बनाये जाते थे और उसे मान्यता देने के लिए धार्मिक रंग दिया जाता था और वही परम्परा बन जाता था ,बहुत लोग धार्मिक ग्रंथों का और प्रचलित कथाओं का इसके पक्ष विपक्ष में उदहारण भी देते है और उसमे से बहुत बड़ी संख्या उन लोगो की है जिन्होंने इनका स्वयम अध्यन ,मनन करने का या तत्कालीन देशकाल को समझने का कभी प्रयास भी किया हो। …।मुझे व्यक्तिगत पीड़ा होती है जब कोई आज के समाज की कुरूतियों के लिए सनातन पौराणिक काव्य ग्रंथों को अनाप सनाप बकते है
पहले भले ही कुछ लोगो ने सामाजिक उत्थान के लिए शुरुवात की ये उनके लिए तत्कालीन आसान नहीं रहा होगा परन्तु वो प्रयास मील का पत्थर जरूर बना भारतीय समाज आज उससे कई शताब्दियों दूर निकल आया है आज धर्म उससे निकल रहा है,गलत परम्पराएँ स्वयं की कमजोर पद रही है या समाप्त भी हो गई है परन्तु परम्पराएँ इतनी आसानी से नहीं जाती और अगर इसका बलात समर्थन या विरोध किया जायेगा तो ये बिघटन करी होगा और जो हावी हो गया और फिर से उसकी पुर्नाविर्ती ही होगी ,
पहले सामाजिक उत्थान को महत्त्व देने वाले कुछ लोगो या राजनीती पार्टियों द्वारा राजनेतिक फायदा उठाने की गरज से दिल से या दीमाक से प्रयास किया उसका समाज में एक सार्थक प्रभाव भी पड़ा ,उसमे कितना सच्चे मायने में सामाजिक न्याय का उदेश्य था एक बहस का मुद्दा हो सकता है। …परन्तु ये अकाट्य सत्य है की जब तक हम स्वयं अपने को हीनता से नहीं निकलते तब तक किसी का सहारा कम नहीं करेगा ,,
आज के युग में भारतीय समाज में दोनो में इससे बाहर निकलने की सुगबुगाहट होने लगी है ,में आशावाद पर पूर्ण निष्ठा रखता हु ,और परिवर्तन दिख भी रहा है ,,,,,,,,हमें सिर्फ अपने समाज को बदलना है ,सामाजिक आर्थिक न्याय के लिए बिना इस सोच के साथ की न "मै हीन " ना "मै उच्च " …।इसके अलावा कोई विकल्प मुझे प्रभावी नहीं लगता। …एक और बात धर्म की चिंता छोड़ दीजिये वो ख़त्म नहीं होता ,अपना स्थान स्वयं बना देता है। …धर्म को सहारे की जरूरत नहीं ,आप अपने पैरों में खड़े हो जाइये

Saturday, October 5, 2013

हे पार्थ पहले तो तुम इकले पगले थे रॆऎऎऎए !!!!!!!!!! ……………





जरा इधर भारत वर्ष में देखो तो। ……………



आकाश को मुह कर थूक रहे है कोई जमीन पे थूक उसपे लोट रहे है
जनता अबकी शायद जागी लगी है , नेताओ की नीद भागी लगी है
कुछ खा के चारा पगुराएँ फिरें है ,कोई हमहै के भरम में भरमायें फिरें है
कोई नमो नमो इतराएँ फिरें है ,कोई बाल हठी दिखलायें फिरें है
कोई पापा से पीठ थपथपाएं फिरें है ,कोई चाचू को मस्का लगायें फिरें है
कोई माया को बहिन बनायें फिरें है कोई चौदह कोस चलायें फिरें है
कोई जेल से बाहर आयें फिरें है कोई जाके डेरा जमायें फिरें है
कुछ गाँधी को अपना बताएं फिरें है ,कुछ नेहरु को ज्यादा गलियाए फिरें है कुछ पटेल लोहे का बनाये फिरें है , कोई भगत की पिस्तौल दिखाए फिरें है 

कोई गाएं फिरे है कोई गुनगुनाएं फिरें है वन्दे मातरम सा सुनाएँ फिरें है। …
कुछ सच्चे सच्चाई छुपायें फिरें है नग्गे नग्गापन दिखाएँ फिरें है
सब अपने कैलेंडर लगायें फिरें है तारीख़ पे तारीख़ बताएं फिरें है
वो सन दो हज़ार अटकाएं फिरें है ये चौरासी को अब तक न भुनाएं सके है
हम जनता की भी थोड़ी लेलो बलैयाँ जो मंदिर मस्जिद में खिसियाएं पड़े है
गीता कुरान घर सजाएँ फिरें है बस जिल्दो पे नज़रे फिराएं पड़े है
पढके समझना कैसे हो भैया सदियों से अंगूठा लगाये फिरें है
अल्लाह दुहाई , राम करें अब भलाई यहाँ तो शैतान भी शरमाएँ फिरें है
 

लगता है कुछ तो भरमायें फिरें है ,अब "जनता " के दिन" फिरें ही फिरें" है

Sunday, January 6, 2013

"सुनो भारत के लोकतंत्र "

"सुनो भारत के लोकतंत्र " जनता और अपने बीच की लम्बी खाई के उस पार तुम सुन सकते हो तो सुनो तुम भारत के लोकतंत्र नहीं हो सकते , संसद के अन्दर वातानुकूलित कक्ष में बैठे हुए तथाकथित जनता के नेताओ शायद तुम हमारे प्रतिनिधि नहीं हो सकते  अरे तुम हो कौन जरा देखो मै (भारत का आम नागरिक )मर रहा हु , मै वो  ही  हु  जिसका बर्बरता से बलात्कार कर हत्या कर दी गई , तुम एक "दामिनी " से डर गए  पर मै  तेरे निज़ाम में हर तरफ हू  हर रोज़ जाने कितनो के साथ ये अन्याय होता है और तुम कानून की दुहाहिया देते नहीं थकते  ,तुम वो ही हो ना  जो बरसात में टपकते हुए  मेरे घर आकर  टूटी हुई चारपाई में बैठ कर एक सूखी  रोटी खा कर आलीशान संसद में जा बैठे हो , कभी दुबारा आ के देखा ,सुनो अब तो छत नहीं है और मेरा परिवार बेसब्री से तेरा इंतजार कर रहा है ,.अरे तुम कहते  हो न कि  तुम हमारे बीच से ही हो , माफ़ करना मेरे आसपास तुम जैसा अब कोई नहीं है , 

हा पहले शायद कुछ लोग थे जो मेरे जैसे थे जो मुझे समझते है पर वो पुरानी बाते है , सुनो अच्छा  है की अब सुधर जाओ , हमें कानून न सिखाओ अरे मुझे कोई जरूरत नहीं पुलिस से मिलने की ,कोई इच्छा भी नहीं है न्यायालयों में भीड़ बढ़ाने की ,तुम आपकी व्यवस्था  को सुधारो ,शायद तुम अपना काम भूल गए हो , मै अपने जीवन की आपाधापी में ही फसा पड़ा हू  मेरे पास अब और वक़्त नहीं की मै रोज़ आपको समझाने "इंडिया गेट " आऊ ,अब शायद मै आया तो तुम वह नहीं होगे ,तुम कहते हो न कि तुम मेरा दर्द समझते हो मेरे ही बीच हो ,तो चलो अब अगली बार मुझे मेरे भारत देश  की दुर्दशा देखने के लिए मत बुलाना , बड़ा बुरा लगता है सच में ,कोई ख़ुशी नहीं होती अपने लिए अपने ही देश में इंसाफ मागते हुए  चलो ज्याद क्या बोलू  समझ तो तुम गए होगे अब तुम सोचो ,

हां  एक और बात  तुम मेरे घर फिर जरूर आना  रोटी खाने कोशिश करूँगा की अब के वो सूखी न हो  और में भी जरूर आऊंगा दिल्ली  लाल किले में शान से फहराते हुए अपने झंडे को देखने .

Wednesday, December 28, 2011

राजनैतिक विचार ----एक आम आदमीं की नजर मे.

लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विचार और परिवर्तन एक अंतहीन परिकिर्या है .सभी दल कुछ लोगो के एक विचार की परिभाषा है ,जिस की विचारधारा  को मेरे समान एक "आम आदमीं " का समर्थन मिलता है वो "सरकार " बन जाता है .यहाँ पर आम आदमीं वो व्यक्ति है जो लगभग किसी दल का मेम्बर नहीं होता जिसके पास इतना वक्त नहीं है की दलों की राजनीती को समझे विचारे , उसका जीवन इस विशाल और महान देश मे अपने जीवन यापन की नियुनतम आवश्यकता तो पूरा करने में ही फसा रहता है जो    संविधान के अनुसार सरकार का अनिवार्य कर्त्तव्य था (है) . ये अकाट्य सत्य है की लोकतंत्र की  शासन व्यवस्था सर्वोतम व्यवस्था है ,
प्रश्न ये है की आज़ादी के इतने वर्षो के बाद भी आज हम सिर्फ बहस कर रहे है दसको के बाद आज क्या देखने को मिल रहा है ,सडको पे और संसद में  एक ऐसी बहस जो कम से कम मुझे नहीं लगता की किसी सकारात्मकता को दर्शा रही है ,
बड़ा दुर्भाग्य है की सभी दलों के बारे में कम से कम मेरी राय तो येही बन रही है कि स्वयं कुछ  सकारात्मक शुरुवात नहीं करते है और सिर्फ इंतजार करते हैकि  कोई करे और उसकी कमी निकलने में कोई कसर न छोड़ी जाये , लोकतंत्र ऐसे संकर्मण कल से गुज़र रहा है कि अगर अभी से सभी दलों दुवारा आत्ममंथ नहीं किया गया तो सबसे ज्यादा इन्ही लोगो को नुकसान होगा ,क्योकि सरकार तो तब भी रहेगी पता नहीं व्यवस्था क्या होगी y . पचास साल पहले और आज के जनमानस में जमीन असमान का फर्क है आज वो  समझ सकता है और देख सकता है सुन सकता है और अँधा विस्वास नहीं कर सकता .आज आम आदमी राजनेताओं के हर व्यव्हार और अपनी परिस्थिति को समझ रहा है .और कही हद तक ये भी सच है कि लोकतंत्र विरोधी भावना मन में आने लगी है ,क्योकि परेशान और आभाव से घिरा आदमी कब तक वायदों के नारों पर विस्वास करता रहेगा ,हम आम आदमी उस सयुक्त परिवार में रहने वाले व्यक्ति कि तरह है जिसमे हर कार्य सबके हित और विकास के लिए क्या जाता है , लेकिन जब उसी परिवार में जाने अनजाने किसी की अवहेलना होने लगती है तो सबसे पहले उसका प्रभाव परिवार व्यवस्था पर ही पड़ता है .
आज ऐसा महसूस होने लगा है  हमारी राजनीतिदलों की   विचारधारा संकीर्ण होती जा रही है हर जनहित मुद्दे को पहले दलगत स्वार्थ से देखा जा रहा है ,सरकार पक्ष का दल हमेसा अपने कार्यकाल को लेकर शंकित रहता है और विपक्षी दल का हर प्रयास सरकार को "येन केन प्रकारेण" हर मुद्दे पे नाकारा दर्शाने का होता है .और मेरा जैसा आदमीं अपने को असहाय देखता है .हर अच्छी व्यवस्था के लिए कीमत चुकानी पड़ती है अब आम आदमीं और कितनी कीमत चुकाएगा दसको से वो चुपचाप वादों पर विस्वास कर रहा है और सायद उसके धेर्य की भी कोई तो हद होगी ,
आज के हालत एक छुपे हुए बबंडर का संकेत  दे रहे है सबको धेर्य के साथ ईमानदारी से काम करना होगा ,वर्ना जो होगा वो सायद किसी के हित में नहीं होगा .क्या एक भी राजनितिक दल अपनी दल गत विचार धारा पर आत्ममंथन करने को तैयार होगा एक एक यक्ष प्रश्न है , क्योंकि "मेरा मेरा" चिल्लाने से कुछ भी "हमारा" नहीं हो सकता .
राजनेताओ को सिरे से खारिज करना या गालिया देना ये निहायती असोभानीया है परन्तु परेशान आदमी हर चीज को अपनी निगाह से ही देखता है जिस तहर का वो जीवन अपने आस पास देख रहा है उससे कब तक हम नैतिकता और शालीनता कि उम्मीद कर सकते है ,
"बहुमत" के विचार को कब तक "कुछ लोगो" का  विचार कह कर हम बहस को नकारते रहेंगे .भारत देश अपने बाल्यावस्था से युवा अवस्था में प्रवेश कर रहा है ,निति निर्धारको को अब गंभीरता से सोचना होगा ,


आज हर दल को सच्चे मन से अपने विचारो का मंथन करना पड़ेगा ,खुले दिल से अपनी गलतियों को मानना पड़ेगा , केवल और केवल अपने कार्यो से जनता का दिल जीतना पड़ेगा वरना कल आने वाला समय उनको याद जरूर करेगा ये उनपर निहित है कि वो किस रूप में अपने को याद करवाना चाहते है .
आम जनता उनको ही भला बुरा कहती है क्योकि हमारे  हित की कसम खा कर ही वो मंत्री बनते है .

Sunday, November 20, 2011

मन की व्यथा



अंतर मन की विस्तृत व्यथा अब इसको पार लगाऊ कैसे ,
इस जीवन के कोलाहल में शांति गीत अब गाऊ कैसे ,
जीवन निर्झर  हर पल एक भय अन्तगति को पाऊ कैसे 
अंतर मन की विस्तृत............
जो बीत गया वो व्यर्थ नहीं था लेकिन तब वह अर्थ नहीं था 
अब भूतकाल में जाऊ कैसे 
अंतर मन की विस्तृत.........
सब कहते मै व्यर्थ जिया मै कहता मै अर्थ जिया 
मेरे तेरे इस अंतर्दुंद में सत्य तत्व को पाऊ कैसे 
अंतर मन की विस्तृत-------------


Saturday, October 1, 2011

एक अरब अमीरों का देश

भाई गजब सा हो रिया  आज कल ,हर कोई बलदा हुआ नजर आ रिया  .कल मुगेरी बाबु को रिक्शे वाले ने डाट दिया , गलती से मार्केट तक चलने से बोल बैठे थे रिक्शे वाला भड़क गया बोला चलो निकल लो ३२ रुपए कमा चुका हु अब मै गरीब नहीं हु चले आते है जाने कहा से और देखते भी नहीं किसको रिक्शा चलाने को बोल दिया .

भला हो सरकार की  प्लानिंग कमिशन का २१ करोड़ तो पहले से ही अमीर थे ,अब सब अमीर है दिल्ली मे भीख मांगने वाले सरकार को फूल का गुलदस्ता देके धन्यवाद् करेंगे कि गरीबो को रोटी न दी तो क्या हुआ अमीरी का ताज 
तो दे दिया .

विश्व में सायद हमारा देश एकलोता देश है यहाँ  रोटी कपडा मकान भले न हो लेकिन भाई यहाँ अमीर हर कोई है .
हमारा पैमाना अलग है भाई इन्सान जिन्दा हो चलता हुआ कही भी पाया जाये वो अमीर है ,कल हमने सोचा भाई हम तो अमीर है चलो कुछ दान कर ले एक भिखारी को देखा पाच रूपये देने लगे तो भैया उसने मना कर दिया बोला ३२ रूपये का इन्तेजाम हो गया अब हम अमीर है लंच के बाद आपसे कुछ ले पाएंगे तब तक इंतज़ार करो ,लो भैया हम तो शर्मिंदा होगये विस्वास नहीं हुआ कि "ये मेरा इंडिया ".